रिस्तों की डोर
रिस्तों की डोर
दोराहे पे खड़ा हूँ,
सोचता हूँ,
किधर जाऊँ,
रिस्तों की डोर में,
उलझा हूँ।।
एक वो दौर था,
जहाँ दर्जन भर परिवार,
रहते थे मिलकर,
एक ये भी दौर है,
जहाँ एक अदब सा,
रिस्ता भी नहीं जुड़ता।।
दिल में घुटन,
आँखों मे चुभन,
घर में बड़ों का,
न कोई लिहाज,
न कोई ईलाज़।।
समये के पहिये ने,
मेरे आँखों के चश्मे को,
हर बार बदल डाले,
जिस चश्मे ने प्यार की,
इबादत पढ़ी थी,
आज वही चश्मा,
धूल की गर्त में,
बेसुध पड़ा है।।
इतने तल्ख रिस्ते,
सुनते नहीं बच्चे,
घर की तन्हाईयों में,
जिन्दगी बबूल सी पड़ी।।
अब न वो चाय,
न वो पानी का प्याला,
दो घूँट पानी के लिए,
चार कोश पैदल चलता हूँ,
समझ ही नहीं आता।।
जिन्दगी की अंतिम बेला में,
रिस्ते घायल कर चले,
खून के रिस्ते पानी में,
कब बह गये,
पता ही नहीं चला।।
कामदेव शर्मा
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