कवि - राकेश पुंडीर
मुंबई
इन शानदार वादियों में
गूंजा करते थे कभी
देवालयों के शंख,
घंटियों के स्वर,
मंजीरों की तान
और भक्तों के जैकरा ....i
आज हवा भी चलती है
तो लगता है जैसे
कफन उडा के लायीं है
चारों तरफ़ मौत का है
जैसे सन्नाटा पसरा ....i
शांत सुन्दर सरिताओं
के कलकल निनाद करते
संगीतमय सजीले नीरर्झरों
के स्वरों की तान ने
आज बदला साज है
उनकी भयानक, विभत्स
और गुर्राती दहाड़
रूह को कंपकपा देती है ....
माँ जान्हवी हुई
आज बिनाशनी
अनगिनित बहती
लाशों को आज तट पर
वह उगल रही है…
मंजर देख,
हिरदय के कोने में
असहनीय टीस सी उठती है…
और एक आवाज सी आती है
कि.…. जिसे हम माँ कहते थे
उसी ने आज अपने बच्चों को
निगल लिया है.….
उन पहाड़ों के शानदार
नीले नीले रंग
अब स्याह लगते हैं
उनमे उड़ते बादलों
को निहार आज लागता है
जैसे फिर मौत का
पैगाम लाये हैं ....
दर्द और अब न देना
हे देव भूमि के देवो
भूमि पुत्रो ने तुम्हें
सदैव मान सम्मान
और हिरदय से पूजा है....
गर.…सजा ही देनी है
तो उन्हें दो जिन्होंने
तेरी धारा को मोड़ा है…
तेरी छाती में बैठ कर
सुतक (अपवित्र ) कर
तेरी पवित्र धरती को लूटा है
उस पावन देवभूमि को लूटा है
............ ...०………..…
................०……………
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